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सूर्य षष्ठी के महापर्व छठ पूजा

– विरेन्द्र कुमार चतुर्वेदी

महिमा एवं गरिमा का पर्व लोक आस्था के महापर्व छठ पूजा जिस विधि विधान से मनाया जाता है वह अपने आप में अतुलनीय है। ऐसे तो साल में दो बार छठ पर्व होता है। एक कार्तिक मास में दूसरा चैत मास में इस मास का पर्व सीनित लोगों के द्वारा किया जाता है जबकि कार्तिक मास के महापर्व छठ पूजा से शायद ही कोई ऐसा घर बचा होगा। छठ पर्व की चर्चा तो अनेक धर्म ग्रन्थों में भी गई है। इस व्रत को करने से जहाँ बाँझन को भी संतान सुख की प्राप्ति होती हैं, वहीं निर्धन को धन रोगी को स्वच्छ शरीर मिलता है। इस व्रत के उपासना करके द्रौपदी ने कौरवों से राजपाट पाया उन पर पाण्डवों ने जीत हासिल की। वहीं भगवान कृष्ण के पुत्र भी अपने पिता के द्वारा दिये गये श्राप से कुष्ठ रोग से ग्रस्त हो गये थे। ऋषियों द्वारा बताने पर छठ व्रत विधि विधान से किया वे कुष्ठ रोग से मुक्ति पा गये। व्रत स्थल छठ घाटों के साफ-सफाई नदी या तालाब के किनारे अमीर-गरीब सब मिलकर करते है।

छठ व्रत की महिमा के अनेकों मिसाल है चाहे वह नाग कन्या हो या सुकन्या सबने इस व्रत को किया यह व्रत बड़ा ही कठिन माना गया है। छठ पूजा का पहला विधान भादों शुक्ल तृतीया ( हरतालिका व्रत यानि तीज) के दिन से प्रारम्भ हो जाता है। इसी दिन से छठ के गीत बजना शुरू हो जाते है। दशहरा के दिन या नवरात्रों में छठ पूजा की कोई सामग्री अवश्य खरीदी जाती है वहीं से छठ पूजा का विधिवत शुभारंभ हो जाता है। कार्तिक कृष्ण पक्ष के प्रथम दिन से व्रतधारियों के घर में शुद्ध शाकाहारी भोजन बनने लगते है।

चार दिवसीय इस अनुष्ठान का भव्य शुभारंभ दीपावली के चौथे दिन यानि कार्तिक शुक्ल चौथी के नहा खाय से होता है। इस दिन व्रती कच्चे चावल, अरहर की दाल, लौकी की सब्जी बनाकर खाती है जो व्रती खुद ही तैयार करती हैं। दूसरे दिन यानि कार्तिक शुक्ल पंचमी को खरना करते है। सारे दिन व्रती उपवास रखती है सांध्य बेला में मिट्टी के चूल्हे पर आम की लकड़ी जलाकर साठी के चावल का खीर, गुड़, डालकर गेहूँ की रोटी बनाती है, बनाने के पश्चात व्रती फिर स्नान करके केला के पत्ते पर खीर- रोटी, फल मूल से नेवज डालकर, पूजन करती है। वहाँ घर के प्रत्येक सदस्य मौजूद रहते हैं। छठ महिमा के आराधना करके गलती को माफ करने की अर्ज करती हैं। उस प्रसाद को व्रती स्वयं खाती हैं घर के सदस्य को भी खिलाती है। इस प्रसाद को आस-पड़ोस जिनके यहाँ व्रत नहीं होता वहाँ भी दिया जाता है। अगले दिन प्रातः बेला से ही छठ पूजा के मुख्य प्रसाद ठेकुआ, साठी के कसार बनना शुरू हो जाते हैं। कार्तिक शुक्ल षष्ठी का यह व्रत को विधि-विधान से करने हेतु साम्रगी एकत्रित करने के लिए घर के लोग सुबह से ही भाग दौड़ करते है।

सूर्य षष्ठी के प्रथम अर्ध्य देने की तैयारी लोग दोपहर से ही डाला सजाकर शुरू कर देते हैं। कांच बांस के सूप, डगरा, मिट्टी के ढक्कन में ठेकुआ, कसार अदरक, मूली, अरबी, ईख, सुथनी, बोरो, नीबू, गागल, अर्कपात, लौंग, इलायची एवं सुपारी फल फूल डालकर कांच बांस के दउरा में सजाते है। उस पर पीला या लाल कपड़े से ढकते हैं। उसके ऊपर दीप जलाकर घर के पुरूष सिर पर दउरा उठाते हैं और छठ घाट की तरफ प्रस्थान करते हैं, उनके पीछे महिलायें, लड़कियां जब छठ मईया के सुन्दर गीत गाती चलती है। वह दृश्य देखने योग्य होता है। जिस बिहार में एक दूसरे नफरत करने वाले लोग भी मिलजुल कर यह त्यौहार मनाते हैं। व्रती घाट पर पहुंच कर गीली मिट्टी

के सिरसोपता बनाती है। सिरसीपता पर सिन्दूर लगाकर मटर या केराव डालकर अर्ध्य रखती है उसके बाद पश्चिम दिशा की तरफ मुंह करके व्रती जल में खड़े होकर छठि मईया की आराधना शुरू कर देती हैं। अस्त होते सूर्य को अर्घ्य अर्पण करके अपने परिवार समाज के लिए खुशियां अपने लिए अचल सुहाग, पुत्र-पौत्र की लम्बी आयु मांगती है। उसके बाद घर लौटती हैं फिर कोसी भरने का ( हाथी बैठाने) की मनौती को पूरा करने के लिए जुट जाती है। पांच गन्ने को खड़ा करके उसके ऊपर लाल या पीला कपड़ा में व्रत सामग्री बांधकर जिसे चनवा बोलते हैं खड़े करते हैं उसके अन्दर मिट्टी के हाथी बैठाते हैं और अगल-बगल में कही 12 तो कहीं 24 कोसी रखते हैं। सब पर दीप जलता है। महिलाएं छठि मईया के गीत गाती है उसके बाद व्रती या घर की महिलाएं फिर से अर्ध्य (डाला बदलने) में लग जाती है। अर्ध रात्रि से ही लोग छठ घाट की तरफ प्रस्थान करना शुरू कर देते है। घाट पर जाकर छठी मईया के आराधना शुरू करते हैं वहीं व्रती पूरब दिशा की तरफ मुख करके ठंडे जल में खड़े हो जाती हैं। सूर्य उदय होने का इन्तजार करने लगती है और छठी महारानी और सूर्य देव से अपने और अपने परिवार के द्वारा अन्जाने में हुई गल्तियां की क्षमा मांगती है और घर परिवार के लिए खुशियां आज के दिन सूर्य भी थोड़ा विलम्ब से निकलते है। सूर्य के निकलते ही सूर्य सप्तमी का अर्ध्य देने की होड़ लग जाती हैं जहाँ पुरूष व्रती को अर्ध्य देने में सहयोग करते हैं अर्ध्य के ऊपर दूध डालते हैं। अर्ध्य देते ही व्रत का समापन हो जाता है। जहाँ व्रती एक दूसरे को सिन्दूर लगाकर आंचल भरती हैं। व्रती अपने पति एवं बड़ों से आशीर्वाद लेती है वहीं और लोग व्रती के पैर छूकर आशीर्वाद ग्रहण करते है तब व्रती अदरक, गर्म दूध से अपने 36 घंटों के उपवास को तोड़ती है। इस प्रकार इस कठिन व्रत का समापन होता है जो छठ व्रत के नाम से जाना जाता है। व्रत की चर्चा बिहार व पूर्वाचल ही नहीं समस्त भारत वर्ष में होने लगा है। इस व्रत का प्रसाद बड़ा अतुलनीय होता है उसे ग्रहण करने से तमाम कष्ट दूर हो जाते है।

जय हो छठि मईया !

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